*।। श्रीरामचरितमानस - विचार ।।*
हंसबंसु दसरथु जनकु
राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई
बिधि सन कछु न बसाइ।।
( अयोध्याकाण्ड, दो. 161 )
दशरथ जी के परलोक गमन पर वशिष्ठ जी ने दूत भेजकर भरत को बुलवाया है, भरत के आने पर कैकइ उन्हें सबकुछ बता देती है। भरत जी कहते हैं कि पापिनी ! तूने कुल का नाश कर दिया। मुझे सूर्यवंश, दशरथ जैसे पिता और राम लक्ष्मण से भाई मिले, पर हे जननी ! तू मुझे जन्म देने वाली माता हुई, ऐसे में मैं क्या करूँ, विधाता पर कुछ भी वश नहीं चलता है।
मित्रों ! जिस पर वश न चले तो उसे स्वीकार करने में ही सुख है।
यहाँ भरत जी न केवल कैकेयी को दोष दे रहे हैं, बल्कि स्वयं को और समस्त संसार को विधाता की लीला का साक्षी बना रहे हैं।
जो हो गया, वह विधि का विधान था – इसे स्वीकार कर लें तो दुख अपने आप शांत हो जाता है।
और जिसे स्वीकार कर लिया, वही राम-तत्त्व है।
कहने का तात्पर्य हैं कि जिस पर वश न चले उसे स्वीकार करने में ही सुख है। वैसे भी राम जी विधाता हैं, उनकी करनी को अपनाकर ही हम सुखी हो सकते हैं। अस्तु ! जय श्रीराम जय राम जय जय राम ।
*astrosanjaysinghal*