।। श्रीरामचरितमानस - विचार ।।*
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा ।
रामहि सेवकु परम पियारा ।।
मानत सुखु सेवक सेवकाईं ।
सेवक बैर बैरु अधिकाईं ।।
( अयोध्याकाण्ड 218/1 )
भरत जी राम जी से मिलने चित्रकूट जा रहे हैं। भरत के समय रास्ता राम जी के वन जाते समय से अधिक सुगम व सुखद है । यह देखकर इंद्र डर जाते हैं कि कहीं राम जी वापस न अयोध्या चल दें । उन्हें समझाते हुए देवगुरु बृहस्पति कहते हैं कि हे देवराज! हमारी बात सुनो, राम जी को अपना सेवक परम प्रिय है । वे अपने सेवक की सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने पर बड़ा वैर मानते हैं ।
मित्रों ! राम जी को अपना सेवक परम प्रिय हैं , अपने सेवक की लड़ाई वे स्वयं लड़ते हैं । अतः राम सेवा कर राम जी के परम प्रिय बन जाएँ व राम रक्षित हो जाएँ। अस्तु! जय जय राम , जय जय राम।
*astrosanjaysinghal*