श्रीमद्भगवद्गीता

।। ईश्वरीय विधान और मानव-सेवा ।।* मनुष्य सहित समस्त चराचर जगत के पालक और रक्षक ईश्वर हैं। मनुष्य तथा अन्य जीवों की सेवा करने से हम ईश्वरीय विधान की अनुपालना में योगदान देते हैं। इसीलिए सेवा को सभी पंथों में पुण्य और सराहनीय कर्म माना जाता है। सेवा के लिए परहित का भाव अनिवार्य है। *श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं –* _परहित सरिस धर्म नहिं भाई।_ _परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।_ अतः जीवन का परम लक्ष्य बन जाए कि हमारा प्रत्येक कर्म किसी न किसी जीव के हित में लगे। जब हम ऐसा करेंगे, तब स्वतः ही ईश्वर की कृपा प्राप्त होगी और अन्तःकरण में वह शान्ति उतरेगी जिसे ऋषि, सन्त-महात्मा लोग “राम-राज्य” कहते हैं। *आज का दिन शुभ मंगलमय हो।* *astrosanjaysinghal*