।। श्रीमद्भगवद्गीता ।।*
*सर्वोपनिषदो गावो… दुग्धं गीतामृतं महत्*
यह प्रसिद्ध गीता-महिमा श्लोक स्वयं उद्घोषित करता है कि उपनिषदों के समस्त ज्ञान रूपी गौधन का सार ज्ञान-अमृत परात्पर ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण द्वारा सरल और सारगर्भित रूप में सम्पूर्ण मानवजाति को प्रदान किया गया है। उपनिषदों की गहन दार्शनिक विवेचना जहाँ अनुभवी साधक के लिए है, वहीं गीता उस वेदान्त को जीवन के मध्य संघर्षों में आचरित करने की कला है। यही कारण है कि भाष्यकार भगवान् भगवद्पादाचार्य आदि शंकराचार्य कहते हैं कि *गीता सुगीता कर्तव्यां* गीता का सुविचारित अध्ययन अनिवार्य है।
उपनिषद् सत्य को प्रत्यक्ष करने की शिक्षा देते हैं कि आत्मा अजन्मा, अविनाशी है
*न जायते म्रियते वा कदाचित्।*
(- कठोपनिषद् )
ब्रह्म सत्य है, नेति नेति; जीव-ईश्वर-जगत का रहस्य आध्यात्मिक अनुभव से प्रकट होता है। गीता इन उपनिषद्-वाक्यों को यथार्थ जीवन और परिस्थितियों में उतारकर मनुष्य को उस ज्ञान का अनुभव कराती है।
ब्रह्मसूत्र का उद्घोष है कि *अथातो ब्रह्मजिज्ञासा* अब ब्रह्म के ज्ञान की इच्छा करो। गीता में वही भावना प्रतिध्वनित होती है - *तत्त्वविदः तत्त्वम्* ज्ञानी ब्रह्म का तत्व बताते हैं। जहाँ ब्रह्मसूत्र दार्शनिक सूत्र देता है, वहीं गीता उसे आचार-प्रयोग बनाकर जीवन-उन्मुख बनाती है।
भगवत्पाद भाष्यकार भगवान् आदि शंकराचार्य कहते हैं कि गीता का लक्ष्य अकर्मण्यता, निराशा, भय और मोह का नाश करना है। गीता “निष्काम कर्म” द्वारा मन शुद्ध करती है, ज्ञान”द्वारा अहंकार को नष्ट करती है,”भक्ति” द्वारा हृदय को परमात्मा में समर्पित करती है।
श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है कि कर्तापन का अभिमान मनुष्य का नहीं, प्रकृति का है
*प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।*
इसी भाव को कठोपनिषद् कहता है कि इन्द्रियाँ स्वभावतः चलायमान हैं; आत्मा साक्षी है। यह अद्वैत वेदान्त का सर्वोच्च शिखर है कि कर्म स्वभावत: होते हैं, परन्तु आत्मा अनासक्त और अकर्ता रहती है।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की विवेचना बताती है कि शरीर-मन-बुद्धि क्षेत्र है, और उनका साक्षी आत्मा क्षेत्रज्ञ है, जो उपनिषदों का मर्म है। कर्म को ईश्वरार्पण करने पर मन निर्मल होता है। यह ब्रह्मसूत्र की “अदृष्ट–निरोध” की अवधारणा का विस्तार है। भक्ति योग ( पूर्ण समर्पण ) गीता की चरम घोषणा *मामेकं शरणं व्रज।*
श्रीमद्भगवद्गीता कहती है कि पलायन समाधान नहीं, अकर्मण्यता आत्मविनाश है, भय अज्ञान का परिणाम है और मोह निर्णय का शत्रु है। उठो, जागो अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानो ! जीवन की दुविधाओं में तनाव, भय, मोह, असुरक्षा, जटिल दायित्व इन सबके बीच श्रीमद्भगवद्गीता ही मनुष्य को स्थिर बुद्धि, दृढ़ता और संतुलन प्रदान करती है। गीता के १८ अध्याय १८ सीढ़ियाँ हैं, जिनसे साधक अहंकार से शुद्धि, शुद्धि से भक्ति और भक्ति से ब्रह्मज्ञान तक पहुँचता है।
श्रीमद्भगवद्गीता वह महाग्रन्थ है, जो उपनिषदों का सार है, ब्रह्मसूत्र की साकार अभिव्यक्ति है, जीवन का मार्गदर्शन है, मोक्ष का विज्ञान है, भक्ति का समर्पण है, कर्म की पवित्रता है और ज्ञान की परम् ज्योति है। गीता जयन्ती का सन्देश है कि हम भी अर्जुन की भाँति भ्रम, भय, मोह से मुक्त होकर कर्तव्य पथ में स्थित हों और आत्मा के परम प्रकाश को पहचानें।
*astrosanjaysinghal*