प्रभु कृपा का स्वरूप

।। प्रभु कृपा का स्वरूप ।।* केवल भौतिक उन्नति को ही प्रभु कृपा का स्वरूप नहीं समझना चाहिए। प्रायः लोग भौतिक सुख-साधनों की प्राप्ति को ही प्रभु कृपा समझते हैं। कृपा अर्थात बाहर की प्राप्ति नहीं अपितु भीतर की तृप्ति है। किसी को भौतिक सुखों की प्राप्ति हो जाना यह कृपा हो न हो लेकिन किसी को भौतिकता में कुछ प्राप्त न होने पर भी भीतर एक तृप्ति बनी रहना यह अवश्य उस प्रभु की बहुत बड़ी कृपा है। जिस हृदय में प्रभु नहीं बसते हैं उस हृदय में सदैव रिक्तता बनी ही रहेगी। जिस हृदय में स्वयं लक्ष्मीपति बैठे हों वहाँ भला रिक्तता कैसे ठहर सकती है। आपके पुरुषार्थ एवं प्रारब्ध से आपको प्राप्ति तो संभव है लेकिन तृप्ति नहीं। तृप्ति तो केवल और केवल प्रभु कृपा से ही संभव है। बाहरी जगत में ज्यादा कुछ प्राप्त हो न हो पर किसी के जीवन में भीतर की तृप्ति है तो उस प्रभु की सबसे बड़ी कृपा समझनी चाहिए। *astrosanjaysinghal*